आध्यात्मिक ज्ञान मे आज आप देखे कि हमारे नित्य किए गए
* *”कर्मों का फल आधारित है”*
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_कर्मों का फल आधारित है इन 3 प्रकार के कर्मों पर:_
*1^^ क्रियमाण कर्म:*
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मानव जीवन में नित्य प्रति जो कर्म सुबह उठने से लेकर दिन भर कुछ भी *क्रिया-कलाप या कर्म* किये जाते हैं। उन्हें *क्रियमाण कर्म* कहा जाता है।
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क्योंकि इन कर्मो के करने से मानव *जीवन गतिमान*
रहता है। क्योंकि मुर्दा या *निर्जीव वस्तुएं* कर्म करने में समर्थ नहीं हो सकती। नित्यप्रति कर्म करना हर जीव का कर्तव्य है। कोई भी व्यक्ति अपनी बुद्धि के अनुसार कैसे भी कर्म कर सकता है। लेकिन यह *क्रियमाण कर्म* उसके जीवित होने और एक गतिशील आत्मा के होने का आभास कराते हैं। इस प्रकार से किये जाने वाले *नित्य कर्मों का फल* अधिकांश साथ-साथ ही प्राप्त हो जाता है। जैसे यदि आप भोजन को ग्रहण कर लेंगे तो आपकी भूख स्वतः ही शांत हो जायेगी।
यदि आप स्नान कर लेंगे तो आपकी देह स्वच्छ हो जायेगी और आपको स्फूर्ति एवं सुख का अनुभव होगा। इन कर्मो को करने के लिए आपको कोई अतिरिक्त शक्ति का उपयोग नहीं करना पड़ता। जैसे कि दिन भर की थकान के बाद आपको निद्रा अपने आप ही आ जायेगी। आपकी थकान के उतर जाने पर आप स्वयं ही उठ जायेंगे। किन्तु यदि आप आलस्य को धारण कर लेंगे तो आपका यह कर्म आपको जीवन की गति से दूर ले जाएगा। आपको इसके दुष्परिणाम भी भुगतने पड़ेंगे। इस प्रकार से किये जाने वाले कर्म *क्रियमाण कर्म* कहलाते हैं।
*2 -संचित कर्म:
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यह बात तो निश्चित हो चुकी है कि आपको कर्म तो करने ही पड़ेंगे। कुछ ऐसे कर्म भी होते हैं, जो कि हम करते तो हैं। लेकिन हमें उस समय यह ज्ञात नहीं हो पाता कि इन *कर्मों का परिणाम* क्या होगा। इस प्रकार से हम कुछ ऐसे कर्म भी करते हैं जो हमारी दृष्टि से बिलकुल सही एवं सटीक होते हैं। किन्तु प्रकृति, समाज एवं अन्य प्राणियों के दृष्टिकोण से उचित नहीं होते।
हम यह अक्सर यह सोचते रहते हैं, कि हमने जो भी किया उसका हमें अच्छा ही परिणाम मिलेगा। लेकिन कई बार ऐसा नहीं होता, और हमें अपनी कर्म करने की सोच में परिवर्तन लाना ही पड़ता है। इस प्रकार से कर्म करते हुए कुछ ऐसे कर्म भी होते हैं जो कि हमारे चित्त की अन्तर्दशा में जाकर एकत्र हो जाते हैं। साथ ही उन *कर्मो का फल* भी चित्त में ही विद्यमान हो जाता है। जब तक हमें अपने इन *कर्मो का फल* प्राप्त नहीं हो जाता। तब तक वह कर्म हमारे चित्त में भी समाहित रहते हैं। इस प्रकार के कर्मो को *संचित कर्म (अर्थात संचय कर रखे गये कर्म)* कहा जाता है।
*3- प्रारब्ध कर्म:*
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जब हमारे कर्म हमें उस दिशा की और ले जाते हैं, जहाँ हमारे कर्म हमें पूर्ण रूप से फल देने को परिपक्व हो चुके होते हैं। तब ही इन *कर्मो का फल* हमें मिलता है। इस प्रकार के कर्मों को *प्रारब्ध कर्म* कहा जाता है। इस प्रकार के कर्म हमारे अंतर्मन में लम्बे अंतराल के लिए एकत्र रहते हैं। यह कर्म कई दिन, कई माह, कई वर्षों तक अर्थात पंद्रह साल, तीस साल, पचास साल, सौ साल या कई जन्मों *(जब तक एक देह में एक आत्मा का वास है)* तक भी हमारे भीतर ही विद्यमान रह सकते हैं।
इन कर्मो में अच्छे एवं बुरे दोनों ही प्रकार के कर्मों का समूह होता है। जिस प्रकार से हम अपने दैनिक जीवन में एक ही दिन में कई प्रकार के कर्म कर लेते हैं। जिनमें से कुछ कर्म हमारे *संचित कर्मों* में समाहित होकर अनंत काल के लिए विलीन हो जाते हैं। इस प्रकार से किये गए कर्मों का एक बड़ा भाग लाखों की संख्या में *संचित कर्मों* के एक विशाल समूह का रूप धारण कर लेता है। इस तरह से यदि हम विचार करें तो पायेंगे कि हम अपने एक मानव जीवन में लाखों *संचित कर्मों* को एकत्रित कर लेते हैं।
यदि हम अपने *पूर्व जन्म के कर्मों* को भी इन में सम्मिलित कर लें, तो हमें ज्ञात होगा कि ऐसे बहुत सारे अनगिनत कर्म अभी बाकी हैं। जिनको भोगना अभी शेष है। ताकि उनका *कर्म फल* हमें प्राप्त हो सके। हमारे शास्त्रों में एक प्रकार के *ज्ञान योग* का भी वर्णन किया गया है। जैसे ही मनुष्य *साधना शैली* के द्वारा इस *ज्ञान योग* को सिद्ध कर लेता है। उसी समय उसके जीवन में से *प्रारब्ध कर्म* समाप्त हो जाते हैं। और ऐसा आभास होता है कि वर्षों तक अंधकार में कैद रहने के बाद एक प्रकाशमय दीपक की रौशनी से जीवन जगमग सा हो उठा है। ऐसे कर्मों को आध्यात्मिक व्याकरण भाषा में *प्रारब्ध कर्म* कहा जाता है।
*मित्रों अपने इस लेख के द्वारा हमने आपके सामने कर्मफल के सिद्धांत एवं कर्मों के प्रकार के विषय में कुछ जानकारी प्रस्तुत की है।
भगवान् श्रीकृष्ण जी ने भी श्रीमद् भगवद्गीता में कहा है कि :
_श्रीमद् भगवद्गीता यथारूपद्वारा कृष्णकृपाश्रीमूर्ति_
_श्री श्रीमद् भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद_
_संस्थापकाचार्य :अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ_
*श्लोक 2.47*
*कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |*
*मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि || ४७
*भावार्थ*
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*तुम्हें अपने कर्म (कर्तव्य) करने का अधिकार है, किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो | तुम न तो कभी अपने आपको अपने कर्मों के फलों का कारण मानो, न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होओ |*
*तात्पर्य
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यहाँ पर तीन विचारणीय बातें हैं – कर्म (स्वधर्म), विकर्म तथा अकर्म | *कर्म (स्वधर्म) वे कार्य हैं जिनका आदेश प्रकृति के गुणों के रूप में प्राप्त किया जाता है | अधिकारी की सम्मति के बिना किये गये कर्म विकर्म कहलाते हैं और अकर्म का अर्थ है – अपने कर्मों को न करना |* भगवान् ने अर्जुन को उपदेश दिया कि वह निष्क्रिय न हो, अपितु फल के प्रति आसक्त हुए बिना अपना कर्म करे | कर्म फल के प्रति आसक्त रहने वाला भी कर्म का कारण है | इस तरह वह ऐसे कर्मफलों का भोक्ता होता है |
जहाँ तक निर्धारित कर्मों का सम्बन्ध है वे तीन उपश्रेणियों के हो सकते हैं – यथा नित्यकर्म, आपात्कालीन कर्म तथा इच्छित कर्म | नित्यकर्म फल की इच्छा के बिना शास्त्रों के निर्देशानुसार सतोगण में रहकर किये जाते हैं | फल युक्त कर्म बन्धन के कारण बनते हैं, अतः ऐसे कर्म अशुभ हैं | हर व्यक्ति को अपने कर्म पर अधिकार है, किन्तु उसे फल से अनासक्त होकर कर्म करना चाहिए | ऐसे निष्काम कर्म निस्सन्देह मुक्ति पथ की ओर ले जाने वाले हैं |
अतएव भगवान् ने अर्जुन को फलासक्ति रहित होकर कर्म (स्वधर्म) के रूप में युद्ध करने की आज्ञा दी | उसका युद्ध-विमुख होना आसक्ति का दूसरा पहलू है | ऐसी आसक्ति से कभी मुक्ति पथ की प्राप्ति नहीं हो पाती | आसक्ति चाहे स्वीकारत्मक हो या निषेधात्मक, वह बन्धन का कारण है | अकर्म पापमय है | अतः कर्तव्य के रूप में युद्ध करना ही अर्जुन के लिए मुक्ति का एकमात्र कल्याणकारी मार्ग था |
*” श्रीमद्भगवद्गीता ‘यथारूप’ की जय “*
सतयुग में ध्यान
त्रेता में यज्ञ
द्वापर में पूजन
और कलयुग में महामंत्र का जप करने मात्र से ही जीवों का उद्धार हो जाएगा।
*सदा जपे महामंत्र*
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे