आध्यात्मिक ज्ञान मे आज आप देखे कि अपने कर्म फल का भोग प्रत्येक जीव को अवश्य भोगना पढता है इस लेख को पूरा पढने के लिए नीचेदीगई लिक पर क्लिक करें-डा०-दिनेश कुमार शर्मा एडीटर एम.बी.न्यूज-24💐💐💐💐💐💐

कर्म और अकर्म में क्या अंतर है????? महात्मा विदुर की कथा,,,,

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श्रीमद्भागवत में सृष्टि की उत्पत्ति का विशद वर्णन हुआ है। तात्विक दृष्टि से जगत मिथ्या है। इसकी हर वस्तु नष्ट होनी है, होती है। इसलिए संत-महापुरुषों ने इस जगत पर अधिक ध्यान नहीं दिया, लेकिन उन्होंने सृष्टिकर्ता के बारे में अवश्य विचार किया और उसे जाना।

जब परमात्मा को माया ने स्पर्श किया तो वह संकल्प से ही एक से अनेक बना…पुरुष में से प्रकृति, प्रकृति में से महत तत्व, महत तत्व से अहंकार का जन्म हुआ…ऐसे ही पंच महाभूतों की उत्पत्ति हुई..और इस प्रकार जगत की हर वस्तु में परमात्मा का प्रवेश हुआ।

चूंकि हर चीज परमात्मा से ही निकलती है, इसलिए सबमें परमात्मा मौजूद है, संतान और संपत्ति में परमात्मा की कृपा कम, प्रारब्ध का फल अधिक होता है, इसलिए जब विदुर जी मैत्रेय ऋषि से मिले, तो ऋषि ने उनसे कहा, ‘‘विदुर तुम कर्म और प्रारब्ध के कारण मनुष्य रूप में हो। वैसे मैं तो तुम्हें अच्छी तरह जानता हूं, तुम तो यम का अवतार हो…स्वयं यमराज हो…इसलिए तुम पर श्रीकृष्ण की कृपा हुई।’’

सुनकर विदुर हैरान हुए…पूछा, ‘‘ऋषिवर, मैं यमराज का अवतार कैसे हूं ? किस कारण मुझे मनुष्य योनि में आना पड़ा ? मैंने क्या अकर्म किया था ?’’

आदमी को कर्म और अकर्म में भेद अवश्य समझना चाहिए। जो जैसा कर्म करेगा, उसे वैसा फल अवश्य मिलेगा, इस कर्म फल से कोई नहीं बच सकता और कर्म बिना कोई रह भी नहीं सकता…कर्म का फल तो कर्म के अनुसार भोगना पड़ता है, यह सत्य है।

मैत्रेय जी ने विदुर से कहा, ‘‘मांडव्य ऋषि के शाप के कारण ही तुम यमराज से दासी पुत्र बने। एक बार कुछ चोरों ने राजकोष से चोरी की। चोरी का समाचार फैला। राज कर्मचारी चोरों की खोज में भागे। चोरों का पीछा किया। चोर घबरा गए। माल के साथ भागना मुश्किल था। मार्ग में मांडव्य ऋषि का आश्रम आया। चोर आश्रम में चले गए। चोरों ने चोरी का माल आश्रम में छिपा दिया और वहां से भाग गए।

सैनिक पीछा करते हुए मांडव्य ऋषि के आश्रम में आ गए। छानबीन की। चोरी का माल बरामद कर दिया। मांडव्य ऋषि ध्यान में थे। राज कर्मचारियों की भाग-दौड़ की आवाज से उनका ध्यान भंग हुआ। उन्होंने मांडव्य ऋषि को ही चोर समझा। उन्हें पकड़ लिया और राजा के पास ले गए। राजा ने फांसी की सजा सुना दी।

मांडव्य ऋषि को वध स्थल पर लाया गया। वह वहीं गायत्री मंत्र का जाप करने लगे। राज कर्मचारी, उन्हें फांसी देते, लेकिन मांडव्य ऋषि को फांसी न लगती कर्मचारी और स्वयं राजा भी हैरान हुआ। ऐसा क्यों ? फांसी से तो कोई बचा नहीं, लेकिन इस ऋषि को फांसी क्यों नहीं लग रही…क्या कारण है ? यह निश्चित ही कोई तपस्वी है..राजा को पश्चाताप हुआ।

ऋषि से क्षमा मांगी। ऋषि ने कहा, ‘‘राजन, मैं तुम्हें तो क्षमा कर दूंगा, लेकिन यमराज को क्षमा नहीं करूंगा, पूछूंगा, मुझे मृत्युदंड क्यों दिया गया ? जब मैंने कोई पाप नहीं किया था, अकर्म नहीं किया था…मैं न्यायाधीश यमराज को दंड दूंगा ?’’

अपने तपोबल से मांडव्य ऋषि यमराज की सभा में गए। यमराज से पूछा, ‘‘यमराज ! जब मैंने कोई पाप नहीं किया था, अकर्म नहीं किया था, तो मुझे मृत्युदंड क्यों दिया गया ? मेरे किस पाप का दंड आपने दिया ?’’ ऋषि के पूछने पर यमराज भी हिल गए। यमराज ऋषि से नहीं डरे, ऋषि की तप साधना से डरे।

तप से ऋषियों की देह और वचन पवित्र हो जाते हैं। इसीलिए, जो कह देते हैं, हो जाता है…तप ही व्यक्ति को पवित्र करता है..भक्ति ही आदमी को पवित्र करती है। ऋषि का प्रश्न सुन यमराज कांप गए…कहा, ‘‘ऋषिवर, जब आप तीन वर्ष के थे, तो आपने एक तितली को कांटा चुभोया था…उसी पाप के कारण ही आपको यह दंड मिला।’’

जाने-अनजाने में जो, भी पाप किया जाए, अकर्म किया जाए, उसका दंड भी भुगतना ही पड़ता है। परमात्मा को पुण्य तो अर्पण किए जा सकते हैं, पाप नहीं।’’ मांडव्य ऋषि ने कहा, ‘‘शास्त्र के अनुसार यदि अज्ञानवश कोई मनुष्य पाप करता है, तो उसका दंड उसे स्वप्न में दिया जाना चाहिए।

लेकिन आपने शास्त्र के विरुद्ध निर्णय किया…अज्ञानावस्था में किए गए कर्म का फल आपने मुझे मृत्युदंड के रूप में दिया। आपको मेरे उस पाप का दंड मुझे स्वप्न में ही देना चाहिए था, यमराज, तुमने मुझे गलत ढंग से शास्त्र के विरुद्ध दंड दिया है, यह तुम्हारी अज्ञानता है…इसी अज्ञान के कारण ही, मैं तुम्हें शाप देता हूं कि तुम दासी पुत्र के रूप में जन्म लो, मनुष्य योनि में जाओ।’’

मैत्रेय ऋषि कहते हैं, ‘‘बस विदुर, इसी कारण तुम्हें मनुष्य योनि में, दासी पुत्र के रूप में जन्म लेना पड़ा। तुम कोई साधारण मनुष्य नहीं हो, तुम तो यमराज का अवतार हो कोई किसी की उंगली काटेगा तो उसकी ऊंगली भी एक दिन कटेगी, कोई किसी की हत्या करेगा, तो उसकी भी एक दिन हत्या होगी। बचपन में ऋषि मांडव्य ने तितली को कांटा चुभोया था इसलिए सूली पर चढ़ना पड़ा और यदि तितली मर जाती तो ऋषि को भी मरना पड़ता, अर्थात् जैसा कर्म वैसा फल।’’

देव से भूल होने पर उसे भी मनुष्य बनना ही पड़ता है और यदि मनुष्य भूल करे तो उसे चार पैर वाला पशु बनना पड़ता है और फिर न जाने चौरासी लाख योनियों में से क्या-क्या बनना पड़े।

इसलिए संत कहते हैं- कर्म अच्छा करें, दूसरे की सहायता करें, भूखे की भूख मिटाएं…गिरे हुए को उठाएं…ऐसे कर्म करने वाले चौरासी के चक्कर में नहीं पड़ते…अच्छा कर्म, अच्छा फल, बुरा कर्म बुरा फल…प्रार्थना करें, परमात्मा से कि ऐसी कृपा करें कि भूल से भी, कोई बुरा कर्म न हो, अकर्म न हो।’’

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