आध्यात्मिक ज्ञान मे आज आप देखे एक बहुत ही प्रेरणा दायक कहानी भाग्य बढा है या कर्म इस लेख को पूरा पढने के लिए नीचेदीगई लिक पर क्लिक करें-डा०-दिनेश कुमार शर्मा एडीटर एम.बी.न्यूज-24******

**जय सियाराम**
आध्यात्मिक ज्ञान मे आज आप देखे एक प्रेरणा दायक कहानी-
*।। भाग्य बड़ा या कर्म…
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*एक जंगल के दोनों ओर अलग-अलग राजाओं का राज्य था। और उसी जंगल में एक महात्मा रहते थे जिन्हे दोनों राजा अपना गुरु मानते थे। उसी जंगल के बीचो-बिच एक नदी बहती थीं। अक्सर उसी नदी को लेकर दोनों राज्यों के बिच झगड़े-फसाद होते रहते थे। एक बार तो बात बिगड़ते बिगड़ते युद्ध तक आ पहुंची।*
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*कोई भी राजा सुलह को तैयार नहीं था, सो युद्ध तो निश्चय हीं था। दोनों राजाओं ने युद्ध से पहले महात्मा का आशीर्वाद लेने की सोची और पहुंच गए जंगल की उस कुटिया में जहाँ महात्मा रहते थे।*

पहले एक राजा आया और उसने महात्मा से युद्ध में विजय का आशीर्वाद माँगा। महात्मा ने कुछ देर उस राजा को निहारा और कहा की राजन तुम्हारे भाग्य में जीत नहीं दिखती, आगे ईश्वर की मर्जी। यह सुनकर पहला राजा थोड़ा विचलित तो हुआ, फिर उसने सोचा कि यदि हारना हीं है तो पूरी ताकत से लड़ेंगे परन्तु यूँ हीं हार नहीं मानेंगे। और अगर हार भी गए तो हार को भी औरों के लिए उदाहरण बना देंगे, परन्तु आसानी से हार नहीं मानेंगे। यह निश्चय कर वह वहां से चला गया।

दूसरा राजा भी जीत का आशीर्वाद लेने महात्मा के पास आया, उनके पैर छुए और विजय श्री का आशीर्वाद माँगा। महात्मा ने उसे भी कुछ देर निहारा और कहा कि बेटा भाग्य तो तुम्हारे साथ हीं है। यह सुनकर राजा तो खुशी से भर गया और वापस जा कर निश्चिन्त हो गया, जैसे कि उसने युद्ध तो जीत ही लिया हो।

अंततः युद्ध का दिन आया, दोनों सेना एक दूसरे के आमने-सामने थे और युद्ध का बिगुल बज गया, युद्ध प्रारम्भ हो चूका था। एक तरफ कि सेना यह सोच कर लड़ रही थीं कि चाहे किस्मत में हार हो पर हम हार नहीं मानेंगे। हम अपना सर्वश्रेष्ठ कोशिश करेंगे, अपना सर्वस्व झोंक देंगे। और वहीं दूसरी तरफ की सेना एक निश्चिन्त मानसिकता के साथ लड़ रही थी की जितना तो हमें हीं है तो घबराना कैसा।

लड़ते लड़ते दूसरी सेना के राजा के घोड़े के पैर का नाल भी निकल गया और घोड़ा लड़खड़ाने लगा पर राजा ने ध्यान हीं नहीं दिया। क्योंकि उसके दिमाग़ में एक हीं बात चल रहा था की जब जीत मेरे भाग्य में है हीं फिर किस बात की चिंता।

कुछ ही क्षण बाद दूसरे राजा का घोड़ा लड़खड़ा कर गिर गया जिससे राजा भी ज़मीन पे गिर पड़ा और घायल हो गया और वह दुश्मनों के बिच घिर गया। पहले राजा के सैनिको ने उसे बंधक बना लिए एवं उसे अपने राजा को सौंप दिया। युद्ध का निर्णय हो चूका था, युद्ध का परिणाम बिलकुल महात्मा के भविष्यवाणी के उलट था। निर्णय के बाद महात्मा भी वहाँ पहुंच गए, अब दोनों राजाओं को बड़ी जिज्ञासा थी कि आखिर भाग्य का लिखा बदल कैसे गया।

दोनों ने महात्मा से प्रश्न किया कि गुरुवर आखिर ये कैसे संभव हुआ? महात्मा ने मुस्कुराते हुये उत्तर दिया, राजन भाग्य नहीं बदला वो बिलकुल अपने जगह सही है पर तुम लोग बदल गए हो। उन्होंने विजेता राजा की ओर इशारा करते हुये कहा कि अब आपको हीं देखो राजन, आपने संभावित हार के बारे में सुनकर दिन रात एक कर दिया। सबकुछ भूल कर आप जबरदस्त तैयारी में जुट गए, यह सोच कर कि परिणाम चाहे जो भी हो पर हार नहीं मानूँगा। खुद हर बात का ख्याल रखा, खुद हीं हर रणनीति बनाई जबकि पहले आपकी योजना सेनापति के भरोसे युद्ध लड़ने कि थी।

अब महात्मा ने पराजित राजा कि ओर इशारा करते हुये कहा कि राजन आपने तो युद्ध से पहले ही जीत का जश्न मानना शुरू कर दिया था। आपने तो अपने घोड़े कि नाल तक का ख्याल नहीं रखा फिर आप इतनी बड़ी सेना को कैसे सँभालते और कैसे उनको कुशल नेतृत्व देते। और हुआ वही जो होना लिखा था। भाग्य नहीं बदला पर जिनके भाग्य में जो लिखा था उन्होंने हीं अपना व्यक्तित्व बदल लिया फिर बेचारा भाग्य क्या करता।

दोस्तों हमें इस कहानी से यह सिख मिलती है कि भाग्य उस लोहे कि तरह वहीं खींचा चला जाता है जहाँ कर्म का चुम्बक हो। हम भाग्य के आधीन नहीं हैं हम तो स्वयं भाग्य के निर्माता हैं।

*यह सत्य है कि भाग्य भी उन लोगों का साथ देता है जो कर्म करते हैं। किसी खुरदरे पत्थर को चिकना बनाने के लिए हमें उसे रोज घिसना पड़ेगा। ऐसा ही जिंदगी में समझें हम जिस भी क्षेत्र में हों, स्तर पर हों हम अपना कर्म करते रहें बिना फल की चिंता किए।*

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