*” जब मनसूखा को खीर न मिली “*
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पञ्च रस हैं भक्ति के.. शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और मधुर।
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बृज में इन दिनों पञ्च रसों की नदी बह चली है.. और जिसे अवगाहन करना हो वो आजाये.. डूबनें वालों को इसका आनन्द है।
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कल मैने एक सपना देखा.. मैं दिव्य गोलोक धाम में हूँ.. मैने आदत अनुसार अपनी आँखें बन्द कर लीं… और ध्यान करनें लगा।
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गोलोक में ऐसे ध्यान कौन करता है ?
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एक प्यारी सी हँसी गूँजी मेरे कानों में..
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मैनें आँखें खोलीं तो सामनें एक बृजवासी बालक खड़ा है.. माथे में चन्दन.. चन्दन भी बस पोत लिया है माथे में।
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गले में माला है तुलसी की… कितनी लरें हैं माला की कहना मुश्किल है.. पीली बगलबन्दी है.. और नीचे धोती.. धोती भी शायद पीली ही थी।
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गौर वर्ण.. सुन्दर उन्नत भाल.. मुस्कुराता मुखमण्डल.. निर्भय खड़ा था वो बृजवासी बालक।
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क्यों ऐसे ध्यान करनें में तुम्हे कोई दिक्कत ? मैने भी पूछ लिया।
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नही.. मुझे क्या दिक्कत है.. मैं तो इसलिये कह रहा था कि जब प्रत्यक्ष इस गोलोक में अपना कन्हैया जहाँ तहाँ डोले है… वहाँ खुली आँखों से न देखकर आँखें बन्द करनें का औचित्य क्या ?
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वो ये कहकर फिर हँसा..
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पर तुम ? मैने उससे पूछा।
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मैं ? मैं तो कन्हैया का सखा हूँ मनसुखा !
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ये कहकर वो तो जानें लगा.. मैं उसके पीछे..
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ये हैं मनसुख.. सख्यरस के आचार्य !
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इनकी चरण धूल तो ले लूँ.. मैं जैसे ही आगे बढ़ता कि मेरी नींद खुल गयी थी.. सुबह के 4 बज रहे थे।
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मैं सोचता रहा.. ”मनसुख सखा” के बारे में.. हाँ मेरे मन में उनकी छबि भी गहरे बस गयी है.. वो मनसुख !
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एक अल्हड़ सखा..
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ये महल गिर जाए और सब दव जाएँ..
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ये महल की छत गिर जाए.. और सब इसके नीचे दव जाएँ..
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मनसुख आज यही कह रहा है.. और सबको सुना सुनाकर कह रहा है.. वो कह ही इसलिये रहा है कि लोग उसकी सुनें।
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हट्ट ! कैसा ब्राह्मण बालक है तू ! ऐसे कोई बोलता है क्या ?
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बृजरानी नें डाँटा मनसुख को..
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मैं ऐसा ब्राह्मण हूँ.. चोटी दिखाई मनसुख नें।
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बेटा ! ऐसे अमंगल शब्दों का उच्चारण नही करते.. अन्नप्राशन संस्कार हुआ है ना तेरे सखा का.. फिर तू तो हमारा पूज्य भी है.. ब्राह्मण है तू.. इसलिये मनसुख लाला ! ऐसे नही बोलते।
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मनसुख को समझाया यशोदा जी नें.. फिर पूछा.. पूड़ी लेगा ? कचौड़ी लेगा ? बोल !
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मनसुख को नमकीन वस्तु से प्रेम नही है.. मीठे का ये प्रेमी है.. पर आज।
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चलो अब.. ब्राह्मण भोज होगा.. पहले ब्राह्मण देवता भोजन करेंगें.. सब व्यवस्था करो।
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तुरन्त सब ग्वालों नें आसन बिछाये.. महर्षि शाण्डिल्य विराजे हैं.. अन्य ब्राह्मण सब पँक्तिबद्ध होकर बैठ गए हैं..
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मनसुख ! तू क्या कर रहा है.. चल आ.. भूख लग रही होगी तुझे भी.. lआ बेटा ! भोजन कर ले।
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मनसुख को यशोदा जी नें बुलाया.. वो तो बस उछलते हुए आगया.. मैं कहाँ बैठूँ ! सोचनें लगा.. फिर बोला.. मामा ! मैं तुम्हारे पास बैठ जाऊँ ?
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महर्षि शाण्डिल्य हँसें… हाँ हाँ.. मेरे पास ही बैठो।
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हाँ.. मैं तो अपनें मामा के पास बैठूंगा.. सबको प्रिय लगता है ये मनसुख.. शायद ही सृष्टि में कोई ऐसा हो.. जिसे ये अल्हड़ कृष्ण सखा प्रिय न हो।
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पत्तल दी गयी.. मनसुख आज बहुत आनन्दित है…
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मेरे सखा का अन्नप्राशन हुआ है.. मैं भी उसकी तरह आज खीर खाऊँगा.. सबसे कह रहा है वो।
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पत्तल में पूड़ी दी गयी.. पूड़ी को देखकर मनसुख कोई ख़ास प्रसन्न नही हुआ था.. कचौड़ी.. ये तो इसे प्रिय है ही नही।
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सब्जी दी गयी.. पर ये कोई ख़ास वस्तु थी नही.. पूड़ी के साथ खाना है इसे.. बेसन के लड्डू दिए.. हाँ ये प्रिय तो है.. पर आज बेसन के लड्डू नही…
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मन्त्र शुरू किया ब्राह्मणों नें.. तो मनसुख बोला… बड़ी जल्दी है तुम लोगों को.. अरे रुको.. अभी खीर आएगी.. फिर मन्त्र पढ़ना।
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पर सब हँसते रहे ब्राह्मण और मन्त्र पढ़ते रहे..
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खीर नही आई…
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उधर ग्वाले हाथ में लेकर खीर खा रहे हैं..
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मनसुख देख रहा है.. और हद्द ये हो गयी कि कई ग्वाल बाल तो मनसुख को दिखा दिखाकर खीर खा रहे थे.. और नाच रहे थे।
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मनसुख ! शुरू करो.. सब खा रहे हैं देखो ! … बृजरानी नें कहा।
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मनसुख नें नाक भौं सिकोड़ कर इधर उधर अपनें ब्राह्मणों को देखा…
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ये लोग पूड़ी ही खाये जा रहे हैं.. कचौड़ी भी…
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अरे ! खीर तो माँगों… खीर के बिना क्या खा रहे हो ?
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मनसुख नें धीरे से कहा था.. पर बृजरानी नें सुन लिया…
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और बोलीं… खीर तो कच्चे में आता है.. हम गोपों के हाथ का कच्चा भोजन तुम ब्राह्मण कैसे करोगे ?
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अब मनसुख के सब समझ में आयी थी कि खीर उसे क्यों नही दी गयी है…
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सब तो खा रहे हैं खीर ! झुंझला उठा था मनसुख।
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वो सब ग्वाले हैं.. पर तुम तो ब्राह्मण हो ! .. बृजरानी नें फिर कह दिया।
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खाओ ! खाओ ! ज्यादा नही बोलते खाते समय.. महर्षि शाण्डिल्य नें भी टोक दिया।
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बिना कुछ बोले मनसुख नें धरती में देखना शुरू किया.. फिर महल के छत की ओर देखते हुए बोला… महल की छत गिर जाए।
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महल गिर जाए.. महल की छत गिर जाये।
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ये क्या बोल रहा है तू ! राम राम बोल मनसुख ! ऐसे वाक्य नही बोलते। .. बृजरानी नें समझाया।
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तभी हँसते हुये बृजराज आ गये.. मनसुख ! एक बात बता अगर छत गिर गयी तो तू बच जायेगा ?
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मनसुख नें तुरन्त जबाब दिया.. हाँ, मैं बच जाऊँगा…
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कैसे ? बृजराज नें मुस्कुराते हुए पूछा।
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“जैसे मैं खीर से बच गया” … मनसुख का उत्तर था।
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बृजराज बहुत हँसे… बृजरानी भी हँस रही थीं… गोप वृंद सब ठहाके लगानें लगे थे।
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देखो मनसुख ! तुम ब्राह्मण हो.. और खीर कच्ची रसोई में आती है.. ब्राह्मण को हम अपनें हाथों की कच्ची रसोई नही दे सकते ना !
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मनसुख नें तुरन्त अपनें कन्धे में हाथ रखा और जनेऊ को दिखाते हुए कहा.. मैं इसे निकाल दूँ तब तो मैं ब्राह्मण नही रहूँगा ?
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महर्षि हँसते हुए बोले.. नही नही.. मनसुख ! जनेऊ मत निकालो.. तुम को खीर दे देंगे…
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हे बृजराज ! ये वर्ण व्यवस्था से ऊँचा योग सिद्ध महापुरुष है… इसे खीर क्या ये तुम्हारे लाला का झूठा भी मांगे तो दे देना…
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ये अनादिकाल से ही तुम्हारे लाला का सखा है.. गोलोक से आया है… इसलिये।
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कहते हैं… मनसुख को खीर बृजरानी नें स्वयं अपनें हाथो से दी…
मनसुख आनन्दित होते हुए खीर खाता रहा… और लाला की जयकारा मनाता रहा।
बाबा !… अब तेरो महल नायँ गिरेगो… ये कहते हुए मनसुखा खूब हँस रहा था।
सतयुग में ध्यान
त्रेता में यज्ञ
द्वापर में पूजन
और कलयुग में महामंत्र का जप करने मात्र से ही जीवों का उद्धार हो जाएगा।
*सदा जपे महामंत्र*
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे