*हरिनाम नही तो जिना क्या-
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जिस हरिनामसे जलमें डूबता हुआ गजराज भी समस्त शोकसे छूट गया, जिस हरिनामके प्रभावसे श्रीद्रौपदीजी- का वस्त्र भी अनन्त हो गया, जिस नामके प्रतापसे श्रीनरसी मेहताजीके सम्पूर्ण कार्य बिना ही उद्योगके सिद्ध हो गये, हे मनुष्य ! उस श्रीहरिनामको छोड़कर तू अपना कल्याण कैसे चाहता है ?
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दूसरेको साथ लेकर डूबनेवाले पत्थर भी जिस हरिनाम स्पर्शसे तर गये, शिवजी महाराज जिस नामके प्रतापसे जीवोंपर कृपा करके भयानक विषपान कर गये, जिस हरिनामके प्रतापसे मीरा प्रभु भक्तिभक्तोंके लिये घोर विष भी अमृतके समान हो गया; हे नर ! उस श्रीहरिनामको छोड़कर तू कैसे अपना कल्याण चाहता है ?
जिस श्रीहरिनामसे कबीरजी तथा रैदासजी सिद्धोंकी श्रेणीमें परम सम्माननीय महिमावाले हो गये; जिस श्रीकृष्ण नामके प्रेमावेशसे श्रीचैतन्यभगवान् (महाप्रभु)-का अपने शरीरका भी ज्ञान जाता रहा – जो नाम- प्रेमावेशमें अपने श्रीविग्रहको भी सँभाल नहीं सके, निरन्तर भगवत्प्रेम और भगवद्ध्यानजनित अद्भुत आनन्दरसमें ही मग्न रहते थे। हा! उस श्रीहरिनामको छोड़कर तू कैसे अपना कल्याण चाहता है ?
जिस श्रीहरिनामके अत्यन्त अद्भुत प्रभावसे मृत्युकालमें ‘हराम’ कहनेवाला यवन भी भगवत्-पदको प्राप्त हो गया; जिसके प्रतापसे ‘मरा’ (रामका उलटा) मन्त्रका जप करके व्याध मुनिराज (वाल्मीकि) बन गया, जिस हरिनामके प्रभावसे श्रीप्रह्लाद परम विपत्तियोंके समूहों
से छूट गये; हा ! उस श्रीहरिनामको छोड़कर तू अपना कल्याण कैसे चाहता है ?
जिस श्रीहरिनामके बिना मुनि, ज्ञानी, योगी और परम पण्डिताभिमानी आदि भी सिद्धिको नहीं प्राप्त होते, जिस हरिनामके बिना विमुख जीवकृत धर्माचरण भी अधर्म हो जाता है; हा! उस हरिनामको छोड़कर तू अपना कल्याण कैसे चाहता है ?
जिस हरिनामके आभासका यानी पुत्रोपचारित ‘नारायण’ नामका पुत्र – स्नेहसे उच्चारण करके अजामिल मुनिराज दुर्लभ भगवत्-पदको प्राप्त हो गया, श्रीशेषजी पृथ्वीको धारण किये हुए भी निरन्तर जिसके वर्णनमें तत्पर रहते हैं; हा! उस श्रीहरिनामको छोड़कर तू कैसे अपना कल्याण चाहता है ?
श्रीशिवजीकी आज्ञासे जिस श्रीहरिनामका स्मरण करके, काशीके अंदर मदिराकी भट्ठीमें पड़ा हुआ अग्नि-भयभीत जार पुरुष भी अग्निभयसे छूट गया, काशीमें मरते हुए प्राणियोंको जिस श्रीहरिनामका तारक मन्त्र देकर श्रीविश्वनाथजी मुक्त कर देते हैं; हा! उस हरिनामको छोड़कर तू कैसे अपना कल्याण चाहता है ?
जिस मङ्गलमय श्रीरामनामको पवनसुत श्रीहनुमान जी महाराज अपने शरीरमें धारण करते हैं, जो श्रीशंकरादिका स्वरूप है; ऐसे श्रीहरिनामको छोड़कर हे नर ! तू अपना कल्याण कैसे चाहता है ?
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सतयुग में ध्यान
त्रेता में यज्ञ
द्वापर में पूजन
और कलयुग में महामंत्र का जप करने मात्र से ही जीवों का उद्धार हो जाएगा।
*सदा जपे महामंत्र*
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे